Friday 24 February 2023

अगर आप सच में बाघ को बचाना चाहते हैं !

 






































 

"जो समय मैंने जंगलों में बिताया है, वह मेरे लिए शुद्ध आनंद लेकर आया है, और मैं उस आनंद को दूसरों को देने जा रहा हूं। प्राकृतिक वातावरण में सभी वन्यजीव मौजूद हैं और मुझे लगता है इसी वजह से यह आनंद मिलता हैं। प्रकृति में न कोई दुःख है और न कोई पछतावा। झुंड के एक पक्षी को या झुंड के किसी जानवर को, बाज़ या मांसाहारी जानवर उठाके ले जाता है और जो बच जाते हैं वे खुश हैं कि उनका समय नहीं आया, वहां कल या भविष्य का कोई विचार नहीं है|.......जिम कॉर्बेट

ऐसे बहुत कम नाम हैं जो वन्य जीवन से इतने निकट से जुड़े हैं कि उनका उल्लेख करते ही आप मन से जंगल में चले जाते है। मुझे यकीन है कि इस देश में भी, जहां बहस करने की प्रवृत्ति है, कोई भी इस बात पर विवाद नहीं करेगा कि जिम कॉर्बेट का नाम सबसे ऊपर है| इसपर कोई दो राय नहीं हैं, जितना इस आदमी ने हमारे देश के वन्य जीवन में योगदान दिया है उतना किसी ने भी नहीं दिया होगा। दुर्भाग्य से, इस लेख का मूल या विषय कॉर्बेट की भूमि है, इसलिए अपनी जिज्ञासा पर दबाव न डालते हुये सीधे बिंदु पर चलते है (यह दुर्लभ बात है, हाहा)। यह खबर लगभग हर अखबार में थी और हेडलाइन पढ़कर मै पुरी तरह डर गया क्योंकि इसका हानिकारक प्रभाव (हमेशा की तरह) पूरे वन्यजीव पर पड़ने वाला था। खबर का सार यह था कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति ने वन्यजीव पर्यटन पर अपनी रिपोर्ट सौंप दी है और जिसमें यह लिखा है कि अभयारण्यों के मुख्य क्षेत्रों में वन्यजीव पर्यटन को या तो प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए या बंद या कम कर दिया जाना चाहिए (आप इसे जो भी कहें परिणाम एक जैसा ही है)। (कुछ अखबारों ने तो यहां तक कह दिया कि बफर जोन में सफारी की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए) रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अभयारण्यों के बफर इलाकों में जूलॉजिकल म्यूजियम जैसी गतिविधियों की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। उत्तराखंड वन विभाग (सरकार) ने कॉर्बेट नेशनल पार्क के बफर जोन में जूलॉजिकल म्यूजियम शुरू करने की अनुमति मांगी, जिसके बाद इस समिति का गठन किया गया और समिति ने उपरोक्त निष्कर्ष निकाला। इसलिए सर्वप्रथम मैं माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समिति गठित करने के निर्णय का सम्मान करता हूँ, लेकिन उसी सन्मान के साथ मैं समिति के निष्कर्षों से असहमत हूँ और यह भी कहता हूँ कि मुझे समिति के सदस्यों के बारे में चिंताएँ (अर्थात् संदेह) हैं। मैं नहीं जानता कि इस समिति के सदस्य कौन हैं और मुझे यह भी नहीं पता है कि वे उन्हें सौंपे गए कार्य को करने के लिए कितने सक्षम हैं। फिर भी जिस तरह से इन मुद्दों को मीडिया में चित्रित किया गया है, उससे पता चलता है कि समिति से किए गए अनुरोध या उसके इरादे में कुछ गंभीर त्रुटियां है। उत्तराखंड सरकार ने बफर जोन में प्राणी संग्रहालय शुरू करने की अनुमति मांगी है, तब कोर या संरक्षित जंगलों में सफारी बंद करने का सवाल ही कहां आता है और इसका कारण यह बताया गया है कि इस तरह के पर्यटन या गतिविधियां संरक्षित वन्यजीवों को परेशान करती हैं। आगे जाकर, रिपोर्ट ने देश के सभी संरक्षित वनों में पर्यटन पर प्रतिबंध लगाने का कड़ा रुख अपनाया है। खैर, मैं उस समिति को नमन करता हूं! मैं विडंबना से कहने का साहस करता हूं, भले ही यह समिति माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित की गई थी। माननीय सर्वोच्च न्यायालय से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वह इस रिपोर्ट के दूसरे पक्ष को देखें और फिर तय करें कि क्या कार्रवाई की जानी चाहिए।

इस समिति से जुड़े कई मसले और भी हैं, उदाहरण के तौर पर इस समिति के सदस्य कौन-कौन थे और उन्होंने किस आधार पर सफारी को प्रतिबंधित या बंद करने का फैसला किया (झूलॉजिकल म्यूजियम के मुद्दे पर हम अलग से बात करेंगे). इसमें उल्लेख किया गया है कि पर्यटन वन्यजीवों को प्रभावित करता है और यह एक बहुत ही सामान्य बयान है, क्या समिति इस बात पर प्रकाश डालेगी कि किस तरहसे पर्यटन का अध्ययन किया गया है और यह कैसे संबंधित वन्यजीवों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित या परेशान करता है?

सिर्फ इसलिए कि एक पर्यटक के वाहन से बाघ को चलने या सड़क पर बैठने के दौरान रुना पडता है या उसे मुडना पडता  है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि बाघ या वन्यजीवन पूरी तरह से प्रभावित हो रहा है। मेरे पास ताडोबा में माया और तारा जैसी बाघिनों की तस्वीरें हैं, जो लगभग बीस वाहनों के बीच से बिना मूडकर देखे आराम से चल रही हैं। इन बाघिनों ने भी मां के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी की है और कुल बीस शावकों को जन्म दिया है जो प्रकृति के प्रति उनका कर्तव्य था । फिर भी हम कहते हैं कि वन्य जीवन गलत प्रभाव डालता है, वो कैसे? बाघिन तारा और माया ने शावकों को जन्म देकर और ताडोबा वन में और उसके आसपास रहने वाले उन हजारों परिवारों को बचाने में मदद की है जो अपनी आजीविका या अस्तित्व के लिए पूरी तरह से वन्यजीव पर्यटन पर निर्भर हैं। यदि पर्यटकों को तारा और माया देखने की अनुमति नहीं होती (अर्थात् कोर क्षेत्र में वन्यजीव पर्यटन पर प्रतिबंध लगा दिया गया होता), तो हजारों परिवार बेरोजगार और बाघ के दुश्मन बन जाते। हम जानते हैं कि मनुष्य और बाघ के बीच युद्ध में अंत में कौन जीतता है, सही है ना?                                                                                 

केवल माया और तारा ही नहीं, बल्कि सोनम, शर्मीली, छोटी मधु, सोनम के साथ-साथ रुद्र, तरु, छोटा मटका और कई अन्य (ताडोबा और उसके आसपास के बाघों के सभी उपनाम है), जो ताडोबा के आसपास के जंगलों के मुख्य आकर्षण हैं और पर्यटकों कॉ बहुत आनंद देते है। ये बाघ ही  मानव और वन्य जीवन के बीच की मुख्य कड़ी हैं। एक बाघ पूरा जंगल नहीं होता है लेकिन आपको किसी भी उत्पाद के लिए एक प्रसिद्ध व्यक्ति या ब्रांड एंबेसडर की आवश्यकता होती है। इसी तरह जब तक हम जंगल को एक उत्पाद के रूप में नहीं पहचानते, तब तक हम उसे बचा नहीं सकते। यह कड़वा सच है कि समिति इसे समझने या पचाने में विफल रही। मैं माननीय सर्वोच्च न्यायालय से माफी मांगता हूं, लेकिन मेरा इरादा आपका अपमान करना नहीं है, मैं सिर्फ आपको वन्यजीव संरक्षण के तथ्य दिखाने की कोशिश कर रहा हूं। समिति का कहना है (जैसा कि मीडिया कहता है) कि अनियमित वन्यजीव पर्यटन वन्यजीवों को नुकसान पहुंचा रहा है और उन्हे एकांत चाहिये। वन्यजीव निजता चाहते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इंसानों से संपर्क पूरी तरह से खत्म कर दिया जाए, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो इंसानों से उनकी रक्षा कौन करेगा? यदि आप संभ्रम में पड गये हैं, तो दो प्रकार के लोग होते हैं, एक जो वन्य जीवन के प्रति अच्छे  या तटस्थ होते है और दुसरे जो वन्य जीवन के प्रति घातक होते है। ये सभी नियम, प्रवेश टिकट, परमिट और वन्यजीव पर्यटन के लिए पैसा खर्च करना अच्छे लोग करते हैं। इस संदर्भ में यह एक पर्यटक है जो जंगल या बाघों को देखने या अनुभव करने के लिए जंगलों का दौरा करता है। दूसरी ओर यह बुरे लोग हैं, यानी वे जो वन्य जीवन के लिए कोई सम्मान या प्रेम नहीं रखते हैं और जिन्हें संरक्षित वनों में प्रवेश करने की अनुमति की आवश्यकता नहीं है (या मांगते नहीं हैं), और ये ऐसे लोग हैं जिन्हें हमें नियंत्रित करना चाहिए। यह सच है कि प्रकृति प्रेमियों को पर्यटकों या आम लोगों पर नियंत्रण नहीं रखना चाहिए।

इसी तरह, पर्यटकों की दो और श्रेणियां हैं, एक वीआईपी लोगों की और दूसरी वन्यजीव फोटोग्राफर की हैं और इन श्रेणियों को नियंत्रित करने की जरूरत है। सच कहूं तो हम भारतीयों को इन वीआईपी व्यक्तियों की रुतबा बहुत ही प्यारा है, हमारे मंदिरों से लेकर हमारे जंगलों तक हर जगह ये वीआईपी व्यवस्था में घुसपैठ कर रहे हैं जिसे रोका जाना चाहिये। वीआईपी व्यक्तियों को संरक्षित वनों में भी जाने की विशेष अनुमति होती है। ये वाहन उन सड़कों पर भी चल सकते हैं जो सामान्य पर्यटकों के लिए बंद हैं, और इन वाहनों के लिए कोई एक तरफा लेन नहीं है। सभी वीआईपी व्यक्तियों के लिए वन भ्रमण का एकमात्र उद्देश्य बाघों को देखना है, वह भी निःशुल्क। इससे होने वाली असुविधा का खामियाजा आम पर्यटकों के साथ-साथ वन्यप्राणी पर्यटन पर निर्भर लोगों को भी भुगतना पड़ता है। समिति ने न तो इसे देखा और न ही इस पर ध्यान दिया क्योंकि उन्होंने अवश्य ही किसी वीआईपी व्यक्ति के वाहन से जंगल दौरा किया होगा। एक और परेशान करने वाली श्रेणी वन्यजीव फोटोग्राफर है वैसे तो वन्यजीवों की तस्वीरें लेने में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन एक विशेष तस्वीर प्राप्त करने के लिए अपनी जान धोखे में डालना और केवल वन्यजीवों के इस पहलू पर ध्यान केंद्रित करने और प्रयास में प्रकृति के प्रवाह को बाधित करना. मेरा कहने का मतलब यह है कि किसी जानवर के रास्ते को रोककर या कोई जानवर प्राकृतिक गतिविधि करने वाला होता है उसे बदलने के लिये उसे मजबूर करके किसी विशेष क्षण या तस्वीरों को कैमरे मै कैद करने का प्रयास करना एक समस्या है। समिति को ऐसे दृष्टिकोण या कार्यों पर ध्यान देना चाहिए। वास्तव में, यदि सामान्य पर्यटक आसपास हों, तो वे चौकीदार के रूप में कार्य कर सकते हैं। क्योंकि अगर कोई वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर कुछ गलत करता है, तो वे उसे रोक सकते हैं और सोशल मीडिया पर इसका उल्लेख कर सकते हैं।

यही वजह है कि वन विभाग को जंगलों में मोबाइल फोन के इस्तेमाल का डर लगता है। क्योंकि अगर वीआईपी व्यक्तियों और प्रसिद्ध फोटोग्राफरों के गलत कारनामे सामने आ गए तो वन विभाग या व्यवस्था की नाकामी भी सामने आ जाएगी। लेकिन उक्त समिति एक महत्वपूर्ण पहलू पर ध्यान देने में विफल रही कि संरक्षित वन में आम पर्यटकों के आने से वन्य जीवों को नुकसान पहुंचाने वाली सभी अवैध गतिविधियों पर अंकुश लगता है, जिससे वन्यजीव का भला ही होगा ना की उनके वन्य जीवन में बाधा आएँगी। इसके बाद वन्यजीव पर्यटन से राजस्व उत्पन्न करने का मुद्दा आता है जो हमेशा तथाकथित (स्वघोषित) संरक्षणवादियों का रोना रहा है और ऐसे सभी लोगों की भावनाओं का पूरा सम्मान करते हुए इसमें एनजीओ, वन्यजीव शोधकर्ता (बहुत कम) और मुख्यधारा का मीडिया शामिल है और वे हमेशा यह साबित करने में लगे रहते हैं कि वन्यजीव सफारी या पर्यटन कितना हानिकारक है क्योंकि इसका मकसद सिर्फ पैसा कमाना होता है| इन तमाम घटकों से मेरा एक ही सवाल है कि क्या पुणे, दिल्ली या जबलपुर जैसे शहरों में अपने आरामदेह घरों या दफ्तरों में बैठकर अपने तमाम वन्य जीवों को बचाने के नारे लगाना और हेडलाइंस लिखना आसान है? लेकिन क्या आप में से किसी ने कभी संरक्षित वनों में जाकर करियर बनाने के बारे में सोचा है? फिर विचार करें कि ऐसे स्थानों पर पर्यटकों द्वारा खर्च की जाने वाली राशि के आधार पर आपके पास दैनिक आय के क्या विकल्प हैं। अगर ये पर्यटक बाघ की एक झलक देखना चाहते हैं तो इसमें कोई गैर नहीं है क्योंकि बाघ का दिखना दुर्लभ है। इसलिए हर कोई इसे देखना चाहता है, प्रकृति का यह नियम है कि मनुष्य का मन हमेशा उसी के पीछे भागता है जो उसे आसानी से उपलब्ध नहीं होता। बेशक, पर्यटन बाघ केंद्रित नहीं होना चाहिए.

जंगल में बाघों के अलावा और भी बहुत कुछ देखने लायक है। लेकिन पर्यटकों को यह बात कौन समझायेगा? अगर गाइड के लिए, आवास के रूप में बेहतर बुनियादी सुविधा होती तो जागरुकता अभियान चलाया जा सकता था लेकिन वही सही नहीं है। यदि हम केवल संरक्षित वनों में ही पर्यटन पर प्रतिबंध लगा देंगे तो पर्यटकों को कैसे पता चलेगा कि बाघों के अलावा वनों में देखने लायक क्या है?

अब बाघ देखे जाने के मुद्दे पर वापस आते है, मुझे वास्तव में आश्चर्य होता है कि कितने (कुछ को छोड़कर) मीडियाकर्मी वास्तव में बाघ अभयारण्य का दौरा करते हैं और देखते हैं कि मुख्य क्षेत्र में भी बाघ को देखना कितना मुश्किल है। सर्वोच्च न्यायालय की समिति वर्तमान में मुख्य क्षेत्र में पर्यटन की कमी पर ध्यान केंद्रित कर रही है और रिपोर्ट में बाघों का पीछा करने वाले पर्यटकों के वाहनों की डाउनलोड की गई छवियों के अलावा वन्य जीवन के बारे में कितनी कम जानकारी है। इसके अलावा, प्रत्येक बाघ या बाघिन का अपना क्षेत्र होता है, इसलिए कोर, बफर या संरक्षित वन के बाहर के क्षेत्रों में बाघ हो सकते हैं, क्योंकि तथ्य यह है कि एक ही क्षेत्र में दो बाघ नहीं रह सकते। इसका मतलब यह है कि वन विभाग में जनशक्ति और मशीनरी की कमी के कारण इन आवासों की सुरक्षा के लिए हमारे द्वारा कोर और बफर आदि बनाए गए हैं, न कि बाघों की सुरक्षा के लिए। वास्तव में यदि हम अन्य जंगली प्रजातियों के साथ-साथ बाघों को भी बचाना चाहते हैं तो सभी वनों को कोर घोषित किया जाना चाहिए और संतुलित पर्यटन (सिर्फ नियंत्रित पर्यटन के लिये नहीं) के लिए खोला जाना चाहिए। हम (मीडिया) आसानी से इस बुनियादी तथ्य से आंखें मूंद लेते हैं; मैं जानना चाहता हूं कि समिति का वन्यजीवन के इस पहलू के बारे में क्या कहना है। मेरा सीधा आरोप है कि मीडिया (न्यूज मीडिया) हमेशा से वन्यजीव पर्यटन के खिलाफ पक्षपाती रहा है और करता रहेगा। क्योंकि वे कभी भी वन्यजीव पर्यटन के बारे में तथ्य नहीं छापते (या छापना पसंद नहीं करते), केवल इसके नकारात्मक पहलू ही छापते है।        

इसके बजाय, हर न्यूज मीडिया को अपने संवाददाता को जंगल में भेजना चाहिए, उन्हें वहीं रहने के लिए कहना चाहिए, वन्यजीवों के बारे में तथ्य और आंकड़े प्राप्त करने चाहिए, स्थानीय लोगों से बात करनी चाहिए, उनकी आजीविका को समझना चाहिए और फिर मैं आज पूरी मीडिया इंडस्ट्री से अपील करता हूं कि वाइल्डलाइफ टूरिज्म के बारे में आप जो सोचते हैं, उसे छापें। और फिर बफर जोन में एक चिड़ियाघर स्थापित करने के अनुरोध के बारे में, मैं कुछ अन्य लोगों की तरह एक वन्यजीव विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन इसके पीछे सरल तर्क यह है कि यह स्थानीय लोगों के लिए आय का एक और स्रोत प्रदान करता है। एक अन्य बिंदु यह है कि इस पर विचार करें कि क्या कान्हा अभयारण्य मै घायल बाघ या हिरण को किसी अभयारण्य से इलाज के लिए सैकड़ों मील दूर किसी शहर में ले जाने के बजाय कान्हा अभयारण्य के पास ही इलाज कर वापस उसी जंगल में छोड़ देना आसान नहीं होगा? इसके अलावा, यदि कोई जानवर स्थायी रूप से घायल हो जाता है, तो उसे प्रदूषित शहरी जंगल में ले जाने के बजाय क्या इसे आस-पास या इसके आवास में ही रखना अधिक प्राकृतिक तरीका नहीं होगा? मुझे यकीन है कि हम सभी को हाल ही में कोविड की लहर याद है और उस समय हल्के लक्षण वाले अधिकांश रोगियों को अस्पताल ले जाने के बजाय घर में ही आइसोलेशन में रहने की सलाह दी गई थी। इसका मतलब यह है कि रोगी ने बीमारी की स्थिति में मनोवैज्ञानिक रूप से बेहतर महसूस किया, क्या यही तर्क उन जानवरों पर भी लागू नहीं होना चाहिए जिन्हें जंगलों के पास चिड़ियाघरों में आश्रय दिया जाएगा और कुछ लोगों को इससे कुछ पैसे मिलेंगे, जो उसी जंगल का हिस्सा हैं, तो इसमें गलत क्या है?

मैं यह नहीं कह रहा कि पर्यटन के माध्यम से वन्यजीवों को नष्ट करो, कोई वन्यजीव प्रेमी ऐसा नहीं कहेगा लेकिन मेरा अनुरोध इतना ही हैं की पर्यटन को वन्यजीवों का दुश्मन मत समझो। मैं खुद एक शहरवासी हूं और सिविल इंजीनियर और बिल्डर (जीविका के लिए) हूं, तो अगर आप (खासकर मीडियाकर्मी) सोचते हैं कि वन्यजीव पर्यटन को बढ़ावा देने से मुझे फायदा होगा, तो मुझे वन्यजीव पर्यटन को बढ़ावा देने में कोई दिलचस्पी नहीं है। फिर भी मैं एक वन्य जीव प्रेमी भी हूँ और मैंने देश के अनेक वनों में न केवल भ्रमण किया है बल्कि उन व्यक्तियों (वन विभाग सहित) का जीवन भी देखा है जो 365 दिन अपनी आजीविका के लिए इन वनों पर निर्भर रहते हैं। अगर हम इन लोगों के जीवन को आरामदायक बना सकते है और जीने का हक़ प्रदान कर सकते है तो, तभी हम देश की 150 करोड़ आबादी (मनुष्यों) के लिए वन्य जीवों को पाल सकते हैं। मैं उन सभी से पूछना चाहता हूं कि क्या वन्यजीवों के इस पहलू पर माननीय सुप्रीम कोर्ट की कमेटी के साथ-साथ मीडिया ने भी ध्यान दिया है| अंत में मैं एक ही बात कहूंगा कि वन्य जीवन हजारों साल या उससे भी ज्यादा समय से अस्तित्व में है, कुछ सौ साल पहले बाघों की संख्या पचास हजार थी जबकि हमारी (मानव) आबादी बीस करोड़ थी। उस समय कोई वन्यजीव पर्यटन नहीं था, कोई संरक्षित वन नहीं था, कोई कोर या बफर जोन नहीं था और अब क्या हो गया है कि हमारी आबादी 150 करोड़ से अधिक है और बाघों की संख्या केवल कुछ हजार है, है ना? तो, आइए एक ऐसा तरीका खोजें जिससे हर व्यक्ति यह समझ सके कि बाघों का रहना क्यों ज़रूरी है, क्योंकि तभी 1.5 अरब लोग बाघों और उनके आवासों की सुरक्षा के लिए कदम उठा सकते हैं।

लेकिन इसके लिए इस देश के हर आम नागरिक को बाघों और उनके घरों (जंगलों) को देखना आना चाहिए| इसलिए, ऐसा करने के लिए आप जो कुछ भी कर सकते हैं, करें, लेकिन अगर हम आम आदमी की हमारे जंगलों तक आसान पहुंच को बंद कर दें, तो हम प्रकृति से समृद्ध इस देश में वन्यजीवों के भाग्य का फैसला कर रहे हैं। हम चाहे किसी भी भाषा का प्रयोग करें, उसका भाग्य वही होगा, अर्थात वह विलुप्त हो जाएगा, अर्थात सदा के लिए खो जाएगा; इसलिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय को इस पर विचार करके निर्णय लेना चाहिए !

यदि आपको कुछ खाली समय मिलता है तो कृपया नीचे दिए गए यूट्यूब लिंक पर तडोबा की सफलता की कहानी पर प्रस्तुति देखें।

https://youtu.be/hR15vYQi72Y

 

संजय देशपांडे 

संजीवनी डेव्हलपर्स

ईमेल आयडी - smd156812@gmail.com

संपर्क : 09822037109