जंगल आपसे कुछ सिखने के लिए,
खामोशीसे आपको निहारता है और शांती से आपकी बातें सुनता है। अगर आपको जंगल से कुछ
सिखना है, तो आपको भी वही करना होगा … मेहमत मूरत इल्दान.
जंगल खुद में कई सारी कहानियाँ समेटे होता है और जब आप उसकी हरी गहराईयों में प्रवेश करते है और उससे बातें करते है, तो आप भी उसकी बातें सुनने लगते हैं… मैं.
इस लेख की शुरुआत दिया उद्धरण
हमारे सदी के सबसे प्रतिभाशाली (कई लोग उन्हे विक्षिप्त भी कहते है) विचारक का है,
जो तुर्कीस्तान से है, और दूसरा उद्धरण मेरा खुद का है, क्योंकी लोग मेरी तारीफ भी
कुछ उसी प्रकार करतें है, (मतलब विक्षिपता से) हमारे
बीच का साम्य वही खत्म हो जाता है, लेकिन जंगलों के प्रति प्यार यह हम दोनों के
बीच और एक समानता है, ये तो आपको मानना ही
होगा ! इन गर्मियों में मैं नागपूर होते हुए पेंच और कान्हा की ओर
निकल पडा, ये यात्रा थी तो काम के सिलसिले में लेकिन कई अरसों से मैं इन जगहों पर
फुरसत से नहीं जा पाया था। गर्मियों का मौसम होने के कारण आसमान साफ था, और दिनभर
पारा चालीस के पार था, लेकिन मैं बाघ देखने से भी ज्यादा साग और साल
वृक्षों से मिलने के लिए बेकरार था (ये सुनकर कई लोगों के चेहरे पर उपहास भरी हँसी
होगी),
वह परिदृश्य हमेंशा मुझे अपनी ओर खींच लेता है। हालाँकी उस पृष्ठभूमि पर बाघ
को देखना केवल अद्भूत होता है। इसबार का मेरा कान्हा का अनुभव भी मेरे पिछले छह सालों के अनुभवों से अलग नहीं था। मेरी कार समृद्धि महामार्गपर नागपूर की ओर जा रही थी,
तभी आसमान में काले बादल छा गए, और तेज बारिश और
तूफान नें ऐसा कहर ढाया कि हमें एक पूलके नीचे आसरा लेना पडा, इसके बाद आगे का सफऱ कैसा होगा इस बात का मुझे
यकीन था। मुझे जंगल के हर मौसम में बदलते रूप से
प्रेम है। पर मुझे जिप्सी में बैठकर भीगना पसंद नही है, और जब आसमान बादलों से
धुंधला हो जाता है तब आप जंगलोका सही मायने में आनंद नही उठा सकते है..क्योंकि बारिश के बाद जबतक आसमान साफ नही होता, जंगल की
गतिविधियाँ थम जाती है, यह मैंने कान्हा के पिछले मेरे कई जंगल सफारी में
अक्सर देखा है। पेंच और कान्हा के जंगल बेहद घनें एवं सागौन और साल वृक्षों की
दीवार की तरह होते है, इस माहौल में रोशनी की कमी होने की वजह से सब काला या भूरा दिखाई पडता है। ऐसे मौसम में पंछियों के रंग देखना भी मुश्किल हो जाता है, और वे
भी ऐसे मौसम में खामोश हो जाते है। जंगल का सारा जीवन सूर्य के चक्र से जुडा होता
है। इसीलिए जब दिनभर रोशनी गायब होती है तो प्राणी और पंछी अपनी दिनचर्या को लेकर
उलझन में पड जाते हैं, जो सूरज के चक्र से जुड़ी होती
है और पूरा जंगल मानलो जैसे थम जाता है! ताडोबा में भी बारीश होती है, लेकिन घंटेभर
में आसमान साफ हो जाता है। लेकिन कान्हा और पेंच में जंगल घना होने के कारण बादल लंबे समय तक ठहरते है, और आसमान में
अंधेरा छाया होता है। अर्थात, यह प्रकृति है, और उसपर आपका बस नहीं चलता!
माध्यमकर्मियों में (खासकर नए
माध्यमों के) वन्यजीवन संबंधी खबरें कवर करने के लिए जागरुकता निर्माण करने के लिए
मैनें नागपूर के वरिष्ठ वन अधिकारियों से बातचीत की, आम लोगों के लिए, खासकर शहरो में
रहने वाले आम लोगों के लिए ये अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय है, इसीलिए यह भेट काम और वन्यजीवन
की सैर दोनों के लिए थी। समृद्धी हायवे होने के बाद, मेरे लिए पुणे से नागपूर ड्राइव करना आम
बात हो गई है। फिर भी पुणे से औरंगाबाद तक का सफऱ तय करने में काफी दिक्कतों का
सामना करना पडता है, खासकर पुणे से पहले ८० किलोमीटर के सफऱ में।
आप
जैसे ही समृद्धी
महामार्ग पर पहुँचते हो, आपकी रफ्तार ९० किमी/घंटा होने के बावजूद पुणे से
नागपूर तक का सफऱ तय करने के लिए नौ घंटे का समय लगता है जो पहले पंद्रह घंटे लगते थे। कान्हा
में पहली सुबह, आसमान काला था और ठंडी हवाएँ चल रही थी। साल के इस समय जब हम लोगों
को फूल स्लीव्ह्ज शर्ट की भी जरुरत नही होती, तब मुझे जैकेट पहनना पड रहा था। इस
बात से आप वहाँ के मौसम का अंदाजा लगा सकते है। तब से लेकर सारी छह सफारी खत्म
होने तक आसमान बादलों से घिरा हुआ था। बीच-बीच में कुछ समय के लिए सूर्यदर्शन होता
रहा, और उस मौके का फायदा उठाकर मैंने साल वृक्ष की कई सारी तस्वीरें खींची. गाईड और जिप्सी ड्राइवर भी थोड़े मायूस थे। क्योंकि ऐसे
मौसम में शेर और अन्य वन्यजीवन देखना थोड़ा
मुश्किल हो जाता है, और वो
बिल्कुल सही थे।
ऐसे
मौकों पर प्रकृति से निराश होने के बजाए, उनका फायदा उठाते हुए गाईड से बातचीत कर पूरे जंगल के बारे में
जानकारी लेने का प्रयास करना चाहिए, ऐसी मेरी सलाह है। गाईड
एवं ड्राइवर जंगल में ही पले-बढ़े होने के कारण उनके पास जानकारी का खजाना होता है। उन्हे पेड, जगह, बाघ आदी चीजों
के बारे में बातें करने के लिए प्रेरित करना जरुरी होता है, क्योंकि काफी पर्यटकों
को इसमें कोई रुची न होने के कारण, यह लोग खुद होके ये सब जानकारी साझा नहीं करते। जब
मैं उन्हें आसपास के सभी चीजों के बारे में पूछने लगा, तब मुझे मालूम हुआ कि मुझे जंगल
के बारे मे कितनी कम जानकारी है, जब कि मैं सोचता था मुझे काफी कुछ पता है। गाईड
ने मुझे बोहेमिया बिलाली नामक एक बेल के बारे में और उसे यह नाम कैसे मिला इस बारे
में बताया। इस बेल के बड़े-बड़े एकसमान पत्तें होते हैं, जैसे जुडवा भाई हो। बिहेमिया
बिलाली ये नाम एक अंग्रेज ने पहली बार इस बेल की खोज की थी। उसी के जुड़वा बच्चों के नाम पर इस बेल का नाम रखा गया। यह बेल काफी मजबूत होने के कारण
आसपास के गावों में उसे रस्सी की तरह इस्तेमाल किया जाता है और ईसके पत्तो से खाने
के पत्तल और कटोरियाँ बनती है। ऐसे ही एक दिन जब आसमान बादलों
से घिरा हुआ था और हम ड्राइव कर रहे थे, तब गाईड ने मुझे एक बड़ा सा पेड़ दिखाया जिसकी छाल लगभग १२ फीट की ऊँचाई तक छिली हुई
थी, और यह किसका काम होगा यह पूछा। मुझे यह जानकारी थी कि गौर पेडों की छाल खातें है,
लेकिन उनके
लिए इतनी ऊँचाईयों तक पहुँचना असम्भव था। बंदरों के लिए भी ऐसा काम कर पाना
मुश्किल था, क्योंकि उनके दातों की अपनी मर्यादा होती है। बाघ अपने पंजों के नाखून
और तेज बनाकर अपनी हद पर निशान बनाकर इस तरह से छाल नहीं छील सकता। तो यह किसका
काम था, जंगल के इस हिस्से में हाथी भी नहीं थे; तो इस
सवाल का जवाब था, साही (पोरक्यूपाईन)। इतना छोटा सा प्राणी ऐसा काम कर
सकता है, यह मेरे लिए नई जानकारी थी। और एक रोचक तथ्य पता चला की इसके काटों के
बावजूद, बाघ का यह पसंदीदा खाना था। कई बाघ साही की शिकार करते हुए घायल हुए है, लेकिन
उन्होंने अपना शिकार कभी नहीं छोडा। गाईड का कहना था की बाघ साही का दिल खाना चाहता है,
इसका सही कारण तो शेर को ही पता
था,
लेकिन ये किस्सा काफी मजेदार था। आप यह सुनकर हंसेंगे, या ऐसी बेतुकी जानकारी का क्या
उपयोग ऐसे भी कह सकते है । अगर बाघ को नहीं देख पाए तो जंगल में जाने का क्या
फायदा, अब यह आप पर निर्भर करता है, इतनाही मैं कह सकता हूँ। हम सब जंगल जातें है।
हम सब अपना कीमती समय और पैसे खर्च कर बाघ देखने के लिए जंगल जाते है, इसमें कोई दो राय
नहीं, लेकिन बाघ का दिखना कई बातों पर निर्भर होता है, और प्रकृति (मौसम) उन में
से एक महत्त्वपूर्ण पहलू होता है, जिसपर आपका कोई नियंत्रण नहीं होता। ड्राइवर और गाईड से बातें कर के आपकों जंगल
और आस-पास के जगहों की कई सारी चीजें देखने को मिलती है, जो बाघ देखनें के चक्कर में पिछे छूट जाती है। आप
जैसे ही, जंगल की बारीकियों को समझने लगते हो तब बाघ
या अन्य कोई वन्य प्राणी देखना और भी रोचक हो जाता है, क्योंकि आप तब जंगल की भाषा
समझने लगते है।
एकबार जब आप ये जान जाते हो, तब आप जंगल में किसी भी मौसम का आनंद उठा सकते है, तब बाघ दिखनें या ना दिखनें से कोई फर्क नहीं पड़ता ।
पेंच
में इस बार और आज कल कान्हा में भी मैंने एक रोचक बात गौर की कि, ज्यादा तदाद मे
बाघ अब रास्ते पर चलते दिखाई नहीं देते (नर और मादा
दोनों), इसका कारण है जो बाघ इन दोनो जंगलों में एक दशक से भी ज्यादा समय से राज करते थे
वो अब गुजर चुकें हैं। ज्यादातर बाघ उमर के कारण चल बसे (पेंच
की लोकप्रिय कॉलरवाली और कान्हा का मुन्ना), कुछ सीमा के संघर्ष में मारे गए और
कुछ इंसानों
के
साथ हुए संघर्ष में। लेकिन जो बाघ हमेशा इंसानों को (टूरिस्ट जिप्सी में
बैठे) नजर आते थे वो अब गुजर चुकें है। नए बाघ शर्मिले है और टूरिस्ट वेइकल से परिचित नहीं है। इसी
कारण निर्भयता से रास्ते पर चलने वाले बाघ और उनके पीछे चलनें वाली जिपसीय यह नजारा अब इन जंगलो में
दुर्लभ होता जा रहा है। इन बछडों को बड़ा होने में थोड़ा समय लगेगा, और तब तक ये
लोगों की नजरों के और कैमरे के शटर के क्लिक-क्लिक आवाज के आदी हो जाएंगे (ताडोबा
में माया नामक बाघीन को यह काफी पसंद है)।
जब तक ये बाघ रास्ते पर आने तक और जिप्सियों
को देखने के आदी होने तक हमें धीरज रखना होगा, ड्राइवर एवं गाईड (और पर्यटकों को)
को भी धीरज रखने के लिए प्रशिक्षित करना होगा। हम एक दूरी बनाकर रखतें है, फिर भी
जब तक बाघ इंसानों के आसपास होने के
आदी नहीं हो जाते, इन वेइकल सें उन्हे कुछ नुकसान नहीं होगा तब तक वह हमेशा उनसे
दूरी बनाकर रखेंगे। इसीलिए बफऱ झोन में बाघ दिखनें के अवसर ज्यादा होते है, क्योंकि बफऱ झोन में बाघ लोगों के आस-पास होनें के आदी होते है, खुद
को सुरक्षित महसूस करते है, इसीलिए उनकी ओर आने वाले वेइकलों से मूँह फेर चलें
नहीं जातें।
अंत
में हम पेंच गए, जहाँ स्थानिय महिलाओ को उनके व्यवसाय के लिए कुछ सहायता की। वे पर्यटकों को जानकारी
देने के लिए सेंटर चलाती है, पेंच वन विभाग (म.प्र.) की विनती पर हमनें उन्हें बर्तन दिए। खवासा बफऱ क्षेत्र में
पर्यटकों के लिए बनें इस केंद्र को देखकर मन प्रसन्न हो गया। पेंच के जंगलों
जगह-जगह पर बनें स्वछतागृह काफी स्वच्छ है, और सफारी में भी हर जगह रेस्टरूम बनें
हुए है, महाराष्ट्र के सफारियों में पर्यटकों की दृष्टी से यह बदलाव बेहद जरूरी है। हमनें
कुछ बाघ देखें और साल वृक्षों की पृष्ठभूमिपर वन्यजीवन
की कई सुंदर तस्वीरें भी खींची। लेकिन इस सफर नें मुझे ऐसा कुछ दिया जो करने मेरी
कई दिनों से मनशा थी …
विश्वास
की छलाँग !
मध्य
भारत की जंगलों में बिच अप्रैल में हुए इस पूरे ट्रिप में बारिश की छाया थी, लेकिन
जंगल से लौटते हुए वह आपको हमेशा खुशियों से भरें कुछ पल देता है। मुझे कई दिनों
से इच्छा थी की हवा में छलाँग लगाते हुए चितल को तस्वीरों में कैद करूं, और मेरी फोटोग्राफी
की स्किल देखते हुए (हाहाहा), यह काम मेरी सोच से ज्यादा कठिन है यह मैं जानता था,
क्योंकि चितल काफी तेज दौड़ते हैं। ऐसे में चलते हुए जिप्सी से उनकी मूवमेंट देखना, कैमरा उठाना, सारे सेटिंग एडजस्ट
करके, ठीक समय पर क्लिक करना, यह बस कुछ सेकंड में होना चाहिए। मैंने कई सारे ट्रिप में
यह करनें की कोशिश की थी, लेकिन कामयाब नहीं हुआ था, फिर भी मैंने हार नहीं मानी थी। एक तरीका था की मैं अपना
अभियंताओं तर्क लगाता और जब जिप्सी की
रफ्तार धीमी हो या वह किसी जगह रुकी हुई हो तब चौकन्ना
रहता (शेर आने के अलार्म कॉल के लिए) और आसपास चितल की मूवमेंट पर नजर रखता और
तैयार रहता। लेकिन इस तरीके से भी समस्या ये थी कौन सा चितल और कब छलाँग लगाने
वाला है यह आपको पता नहीं होता। लेकिन, इस बार जब मैं अलार्म कॉल का इंतजार कर रहा
था, मैने झरने की ओर जाता चितल का एक झुंड देखा। मुझे पता था की इसमें कुछ
छोटे चितल ऐसे होंगे जो किसी भी रुकावट को अलग तरीके से लाँघने की कोशिश करेंगे,
क्योंकि यह खुद की ताकत आजमानें का तरीका होता है और थोड़ा दिखावा भी। जब एक चितल
अपने पैर भिगौकर, झरना लाँघने के चक्कर में था, मैं तैयार था, आखिरकार मुझे मेरी
मनचाही तस्वीर मिल ही गई।...
इसी
बात पर मैंने पेंच के जंगल और घने साल वृक्षों से इज़ाजत ली, दुबारा आने का, और
उनके बारे में अधिक जाननें का आश्वासन देकर!
Sanjay Deshpande
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